अपेंडिसाइटिस (Appendicitis) – कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक दृष्टिकोण

Mar 31, 2025
आयुर्वेद ज्ञान
अपेंडिसाइटिस (Appendicitis) – कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक दृष्टिकोण

आंत्रपुच्छ शोथ अर्थात अपेंडिसाइटिस रोग होने पर आधुनिक चिकित्सक तुरंत शल्य चिकित्सा का परामर्श देते हैं ,लेकिन आयुर्वेद चिकित्सक वनौषधियों से आंत्रपुच्छ शोथ की विकृति को नष्ट करते हैं | आधुनिक चिकित्स्कों के अनुसार अपेंडिक्स शरीर के लिए विशेष उपयोगी अंग नहीं है | शरीर में आंत्रपुच्छ निष्क्रिय रूप में रहता है | इसमें कोई रक्त संचार नहीं होता। ऐसी स्थिति में आंत्रपुच्छ को किशोरावस्था में शल्यक्रिया द्वारा निकलवा लिया जाये तो भविष्य में आंत्रपुच्छ शोथ की विकृति से सुरक्षित रहा जा सकता है | 


आयुर्वेदाचार्य के अनुसार आंत्रपुच्छ शरीर के लिए उपयोगी अंग है | आंत्रपुच्छ में ऐसे स्त्राव की उत्पत्ति होती है जो वृहदांत्र की आकुंचन क्षमता को विकसित करता है | 


आंत्रपुच्छ शरीर में रक्षात्मक प्रक्रियाओं में भी सहायता करता है | चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार आंत्रपुच्छ में लसीका तंतुओ की अधिकता होने से शरीर में रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट करने की प्रक्रिया चलती रहती है | आंत्रपुच्छ को शल्य चकित्सा से निकाल देने पर अजीर्ण,अपचन और कोष्ठबद्धता की  विकृति अधिक होती है | प्लीहा की तरह आंत्रपुच्छ भी शरीर  की सुरक्षा में सक्रिय सहायता करती है | 


आंत्रपुच्छ की सरंचना - 


आंत्रपुच्छ शोथ  विकृति के सम्बन्ध में आगे कुछ लिखने से पहले आंत्रपुच्छ के सम्बन्ध में स्पष्ट कर देना चाहते हैं | वृहदांत्र के प्रारम्भिक भाग को उण्डूक कहा जाता है | शैशवावस्था में उण्डूक का आकार बड़ा होता है,लेकिन आयु के विकास के साथ इसका आकार कम होता चला जाता है | किशोरावस्था तक उण्डूक 4 अंगुल रह जाती है | इसका व्यास लगभग चौथाई इंच होता है | आंत्रपुच्छ की लम्बाई के आधार पर उस व्यक्ति की उपांत्र का आकार निर्भर करता है।  


उण्डूक का अंतिम भाग बंद होता है,जिसमे कोई पदार्थ पहुँच जाये तो वापस नहीं निकल पाता| आंत्रपुच्छ में शोथ और तीव्रशूल भी इसी कारण से होता है | नींबू संतरे का बीज व अन्य किसी खाद्य पदार्थ का कोई अंश आंत्रपुच्छ में पहुँच जाये,तो वहां स्थिर रहकर कुछ दिनों में शोथ की विकृति उत्पन्न कर देता है | 


आंत्रपुच्छ शोथ की उत्पत्ति -


आयुर्वेद  चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार आंत्रपुच्छ शोथ की विकृति कोष्ठवद्धता के कारण अधिक होती है | आंंत्रों में अधिक समय तक मल रुके रहने पर उसमे सड़न होने पर विषैले जीवाणु आसपास के अंगो को अधिक हानि पहुंचाते हैं | जीवाणुओं के संक्रमण से आंत्रपुच्छ में पूय(मवाद) की उत्पत्ति होने लगती है | शोथ के साथ ही आंत्रपुच्छ में तीव्र शूल होने लगता है | तीव्रशूल में रोगी जल बिन मछली की तरह तड़प उठता है | शूल बहुत असहनीय होता है | 


चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार नींबू,संतरे आदि के बीज भी आंत्रपुच्छ  की उत्पत्ति कर सकते हैं |  आंत्रपुच्छ में मटर,चने,मूंगफली का कोई टुकड़ा पहुंच जाने पर जब वापस नहीं निकल पाता है तो आंत्रपुच्छ में शोथ की उत्पत्ति करता है | शोथ के साथ मवाद की उत्पत्ति होने से तीव्र शूल भी होने लगता है | शाकाहारी स्त्री-पुरुषों की अपेक्षा मांस,मछली आदि खाने वाले आंत्रपुच्छ शोथ से अधिक पीड़ित होते हैं। विभिन्न पशुओं के दूषित मांस के कारण आंत्रपुच्छ में जीवाणुओं का संक्रमण अधिक होता है। 


दूषित मांस,मछली के सेवन से उपांत्र की श्लेष्मिक कला में अति शीघ्र जीवाणुओं के संक्रमण से शोथ की उत्पत्ति होती है। शोथ की विकृति व्रण शोथ के रूप में फैलती है और फिर उपांत्र के शोथ से सौत्रिक तंतु अधिक ठोस रूप धारण कर लेते हैं|  इस विकृति के कारण आंत्रपुच्छ का छिद्र अधिक संकीर्ण हो जाता है | जीवाणुओं के विषक्रमण से मवाद की उत्पत्ति होने के साथ शूल होता है | डिब्बों में बंद मांस,मछली खाने से,आंत्रपुच्छ शोथ की अधिक सम्भावना रहती है | 


चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार गलग्रंथि में दाह और शोथ होने से,वृहदांत्र के अधिक समीप होने से उसमे भी शोथ और मवाद की उत्पत्ति हो सकती है | पस से,सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते गिर जाने से पर वृहदांत्र पर लगने से शोथ की विकृति हो सकती है | दाँतों में कोई रोग होने पर जब भोजन को अच्छी तरह चबाकर नहीं खाया जाता है,तो किसी कठोर चीज़ के वृहदांत्र में पहुंच जाने से दाह की उत्पत्ति हो सकती है | बेसिली कोलाई कोम्युनिस जीवाणु आंत्रों में छिपे रहते हैं और किसी समय भी शोथ की उत्पत्ति कर देते हैं | 


आंत्रपुच्छ शोथ के लक्षण -


आंत्रपुच्छ में शोथ होने के साथ शूल की उत्पत्ति होती है |  शूल नाभि से शुरू होकर दाहिनी ओर जाता है | कुछ देर बाद पूरे उदर में शूल का अनुभव होता है | रोगी को प्रारम्भ में जी मचलाने की शिकायत होती है | कुछ रोगियों को उल्टी भी होने लगती है | आंत्रपुच्छ में शूल के साथ सिरदर्द भी होता है | आंत्रपुच्छ को ऊपर से दबाने और दाएं पैर को जानु से पीछे की और मोड़ने से अधिक पीड़ा होती है | 


शूल होने के साथ रोगी को हल्का ज्वर भी होता है। प्रारम्भ में 99 डिग्री फारेनहाइट ज्वर होता है | आंत्रपुच्छ में मवाद की अधिकता के साथ ज्वर भी बढ़ता जाता है। आंत्रपुच्छ के अधिक शोथ के कारण फट जाने पर मवाद के शरीर में फैल जाने से 100 डिग्री से 103 डिग्री फारेनहाइट ज्वर हो जाता है | रोग की उग्रावस्था में कुछ रोगियों को 105 डिग्री फारेनहाइट ज्वर भी हो जाता है | 


आंत्रपुच्छ शोथ में रोगी स्नान काठिन्य से भी पीड़ित हो सकता है। रोगी के उदर को दाहिनी और वस्ति वक्ष के बीच भाग में दबाने से पीड़ा होती है | उस भाग के स्नायु भी कठोर प्रतीत होते हैं | आंत्रपुच्छ शोथ की तरफ के स्नायु अधिक कठोर होते हैं। 


आंत्रपुच्छ रोगी कोष्ठवद्धता से अधिक पीड़ित होता है | जब रोगी को कोष्ठवद्धता नहीं होती है,तो उसे अतिसार की विकृति होती है | कोष्ठवद्धता  की स्थिति में अधिक शूल की उत्पत्ति होती है,क्योकि मल एकत्र होकर मलाशय पर दबाव डालता है | 


आंत्रपुच्छ शोथ पर दाहिनी जंघा मूल के कौड़ी प्रदेश में दबाने असहनीय शूल होता है | चिकित्स्क शूल के इस भाग को शेरेन्स त्रिभुज के रूप में रोगी के विवरण फाइल में चित्रांकित करते हैं | आंत्रपुच्छ रोगी की नाड़ी की गति 120/मिनट होती है,लेकिन शूल की अधिकता के साथ गति बढ़ जाती है | नाड़ी की गति 140 हो जाये,तो रोगी की शल्य चिकित्सा आवश्यक हो जाती है | 


आंत्रपुच्छ शोथ में मूत्र परीक्षण से भी विकृति का पता चल जाता है | आंत्रपुच्छ में शोथ होने पर मूत्र में रक्त कण व मवाद के अंश दिखाई देते हैं | मूत्र में एल्ब्यूमिन की उपस्थिति भी देखी जा सकती है | आंत्रपुच्छ शोथ में चिकित्सा में विलम्ब करने से गंभीर स्थिति बन सकती है | आंत्रपुच्छ शोथ की अधिकता होने पर मवाद टपक-टपक कर पूरे उदर में फैलने लगता है | मवाद के रक्त में मिलने से अधिक हानि होने की सम्भावना बढ़ जाती है | उदर फूलने लगता है | रोगी को स्वाश लेने में कठिनाई होने लगती है | ज्वर भी अधिक होता है|  नाड़ी की गति भी बढ़ जाती है | आधुनिक चिकित्सक इस अवस्था को पेरिटोनाइटिस कहते हैं | ऐसी स्थिति में तु्रंत चिकित्सा न की जाये तो रोगी की मृत्यु भी हो सकती है | पेट में विषक्रमण से गंभीर स्थिति बन जाती है | 


आंत्र पुच्छ में उपांत्र शोथ होने की स्थिति अत्यंत घातक होती है | आंत्रपुच्छ के छिद्र बंद हो जाने से मल वहीं रुक जाता है ऐसे में तुरंत शलयक्रिया न की जाए तो रोगी मृत्यु का शिकार हो सकता है | 


आंत्रपुच्छ शोथ की चिकित्सा -


आयुर्वेद चिकित्सा विशेषज्ञ आंत्रपुच्छ शोथ औषधियों के सेवन के साथ रोगी के भोजन पर भी नियंत्रण रखते हैं | रोगी को उपवास कराकर शूल को कम करते हैं | रोगी को धीरे-धीरे चम्मच से जल का सेवन कराते हैं | दो तीन दिन के उपवास के बाद रोगी को मूंग,जौ,कुल्थी का सूप बनाकर देने से अधिक लाभ होता है | नीबू ,संतरे और मौसम्मी का रस दिया जा सकता है | एक सप्ताह बाद चौलाई  की सब्जी,दाल-चावल,दलीय,सूप का सेवन करा सकते हैं | अंगूर,सेब और अनार का रस भी दे सकते हैं | 


शोथ से पीड़ित व्यक्ति को अधिक समय तक विस्तर पर आराम करना चाहिए | परिश्रम का कोई भी काम करने से शूल अधिक बढ़ सकता है | मलावरोध की अधिकता होने पर एनीमा देने से शूल कम होता है | रोगी को मलावरोध नष्ट कराने के लिए जुलाब नहीं देना चाहिए | पीले व हरे रंग की बोतलों में जल भरकर उन्हें एक सप्ताह तक धुप में रखें | रोगी को प्यास लगने पर थोड़ा-थोड़ा जल पिलाने पर बहुत लाभ होता है | शोथ और शूल भी कम होता है | 



आयुर्वेदीय उपचार - 

  • आंत्रपुच्छ शोथ के रोगी  को प्रातःआरोग्यवर्द्धिनी रस की दो गोलियां  और त्रिफला गुगुल की दो गोलियां खरल में  पीसकर जल के साथ सेवन कराएं | ऐसा ही शाम  को भी करें | 

  • दशमूलारिष्ट और पुनर्नवारिष्ट 15-15 मिली मात्रा में लेकर,इतना ही जल मिलाकर सुबह-शाम रोगी को पिलाने से शोथ कम  होता है | कोष्ठवद्धता नष्ट होने से शूल से मुक्ति मिलती है |

  • भोजन के बाद रोगी को अग्नितुंडी की दो गोली जल से सेवन कराएं | शोथ की विकृति अधिक होने  पर अग्नितुंडी की चार गोली भी दे सकते हैं | 

  • आंत्रपुच्छ शोथ में अधिक ज्वर, शूल की अधिकता होने पर वृहत वातचिंतामणि रस की गोली खरल में पीसकर तुलसी पत्र के साथ सेवन करा सकते हैं | इससे शूल का प्रकोप कम होता है |

  • सुबह-शाम लगभग 120से125 मिग्रा बंगभस्म शहद मिलाकर रोगी को चटाने से मवाद की उत्पत्ति कम होती है | 

  • बंगभस्म १२० से 125 मिग्रा और शिलाजीत 120 से 125 मिग्रा की मात्रा में लेकर गोलियां बनाकर दो-दो गोलियां सुबह-शाम जल के साथ सेवन कराने से शोथ व शूल  कम होता  है | 

  • अभ्र्कभस्म और चंद्रप्रभावटी की गोलियां खरल में पीसकर जल के साथ सेवन करने से शूल के प्रकोप का निवारण होता है | 

  • पुनर्नवा मंडूर लगभग आधा ग्राम,लौह भस्म 120 से 125 मिलीग्राम योगराज गुगुल 240 से 250 मिग्रा,शंखभस्म 240 से 250 मिग्रा मात्रा में लेकर  किसी खरल में पीसकर पुनर्नवा के काढ़े के साथ सेवन करने से  आंत्रपुच्छ शोथ में बहुत  लाभ होता है | सुबह- शाम सेवन करना चाहिए|

  • पुनर्नवा मूल,हींग,सौवर्चल लवण,सोंठ और भुना हुआ सुहागा सभी चीज़े बराबर मात्रा में मिलाकर पीसकर सहिजन के मूल  के रस में घोंटे |चार सप्ताह तक सहिजन की जड़ के रस में घोंटकर  शुष्क  होने  पर एक-एक ग्राम  की  गोलियां बनाकर ,छाया  में सुखाकर  रखें | प्रतिदिन चार बार इन गोलियों  को  तीन-तीन घंटे के अंतराल  से हल्के उष्ण जल से सेवन कराएं | शोथ व शूल का निवारण होता  है | 

  • शूल वर्जिनी वटी ,शूल गज केसरी या अग्नितुंडी वटी में से कोई एक औषधि सुबह -शाम जल के साथ सेवन कराने से वमन,ज्वर व शूल नष्ट होते हैं |

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