"गठिया (Arthritis): कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक इलाज | संधिगत वात का प्राकृतिक उपचार"

Mar 31, 2025
आयुर्वेद ज्ञान
"गठिया (Arthritis): कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक इलाज | संधिगत वात का प्राकृतिक उपचार"


संधिवात या संधिगत वात  विशुद्ध वातरोग है | संधि में रहने वाला विकृत वायु संधियों को नष्ट कर देता है तथा उनमे दर्द व सूजन को उत्पन्न करता है | संधियों को नष्ट करने का अर्थ यह है कि संधियों की स्वाभाविक कार्य करने की शक्ति में विकार आ जाता है | 


संधियों में एक विशेष प्रकार का लचीलापन होता है ,जिसके कारण उनमे आवश्यकता के अनुसार सिकुड़ने तथा फैलने का गुण होता है | संधियों में रहने वाले वायु के विकृत होने से यह गुण नष्ट हो जाता है,जिसके कारण रोगी अपनी इक्छानुसार विकारग्रस्त संधि को सिकोड़ने तथा फैलाने में असमर्थ हो जाता है | यदि वह सिकोड़ने या फ़ैलाने का प्रयत्न करता है तो उस संधि के स्थान पर तीव्र पीड़ा होती है | 


                         वायु विकृत ( प्रकुपित) क्यों होता है ? 


रूखे,ठन्डे,अल्प मात्रा में तथा लघु( शीघ्र पचने वाले) भोजन के लगातार सेवन करने से,अत्यधिक मैथुन तथा रात्रि जागरण से,असमय पंचकर्म करने से,देश और काल के विरुद्ध असात्म्य आहार-विहार का सेवन करने, वमन, वोरेचन वस्ति आदि के द्वारा दोषों या रक्त के अधिक मात्रा में बाहर निकलने से,अधिक उछलने कूदने से,तैरने,पैदल चलने,अधिक व्यायाम, स्थायी रोग अथवा किसी भी कारण धातुओं का क्षय होने से वायु के रूक्ष आदि गुणों की वृद्धि होकर उसका प्रकोप होता है | 


इनके अतिरिक्त चिंता,शोक,क्रोध,भय तथा अधारणीय वेगों(मल,मूत्र आदि) को रोकने से शरीर में आमदोष की उपस्थिति से,चोट,उपवास तथा मर्मस्थान की बाधा से तथा हाथी,घोडा,ऊंट वाहन आदि तेज़ गति की सावरियों से गिरने के कारण शरीर में रहने वाला वातदोष प्रकुपित होता है तथा विभिन्न वात रोगों को उत्पन्न करता है | 


                          सम्प्राप्ति एवं लक्षण


अपने प्रकुपित होने वाले कारणों से प्रकुपित हुआ वायु संधियों में आश्रित होकर पीड़ा उत्पन्न करता है | रोगाक्रांत संधियों को सिकोड़ने-फ़ैलाने पर पीड़ा होती है | उपदंश,फिरंग,पूयमेह आदि संसर्गजन्य रोगों के उपसर्ग से भी संधिवात उत्पन्न होता है | 


आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं के अनुसार यह प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में होने वाला रोग है | उम्र के बढ़ने पर जिस तरह उत्तरोत्तर शरीर के अंगों में शिथिलता तथा कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है,उसी तरह संधियों में भी कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है | संधियां क्षीण होने लगती हैं | इस क्षीणता का प्रभाव संधि-स्थल की तरुणास्थियों में कैल्सिफिकेशन(calcification) होकर खरता उत्पन्न हो जाती है |  इस रोग से पीड़ित संधि के अंग से जब किसी तरह की चेष्टा की जाती  है,तब ये क्षीण हुई तरुणास्थियाँ दो अस्थियों के अग्रभागों को आपस में रगड़ खाने से नहीं रोक पाती | 


संधि की दोनों अस्थियों के आपस में रगड़ खाने की प्रक्रिया से  अस्थियों के अग्रभार खर हो जाते हैं तथा सन्धिकोष में रहने वाली श्लेष्मल कला (म्यूकस मेम्ब्रेन) भी मोटी तथा कठोर हो जाती है,लेकिन सन्धिकोष नष्ट नहीं होता है | 


वैसे तो यह रोग समस्त संधियों में हो सकता है,लेकिन जिन संधियों से जीविकोपार्जन का कार्य अधिकांश रूप से लिया जाता है,वे संधियां ही अधिकांश रूप से इस रोग की चपेट में आती हैं |  


संधियों में होने वाली वात पीड़ा तथा सूजन को ही संधिवात कहते हैं | इस वात में संधियों में जकड़न होने से उनके स्वाभाविक रूप से कार्य करने की शक्ति नष्ट हो जाती है | संधि के नाम पर रहने वाली तरुणास्थि क्रमश: कठोर होते हुए अंत में अस्थि का रूप धर लेती है ,जिसके कारण सम्बंधित संधि के कार्य करने की शक्ति पूरी तरह नष्ट हो जाती है तथा संधि के स्थान पर कठोरता तथा उभार हो जाता है| 


संधिवात के समान आमवात तथा वातरक्त व्याधियों में भी उपरोक्तानुसार लक्षण होते हैं, निम्न विशेषताओं के कारण सन्धिवात का निश्चित निदान हो जाता है -


  1. संधिवात रोग केवल बड़ी संधियों में ही होता है | 

  2. इसमें दोनों तरफ की संधियां प्रभावित होती हैं | यदि एक घुटने की संधि  में यह रोग हुआ हो,तो दूसरे घुटने की संधि में भी होगा | 

  3. इस रोग में पहले संधि में सूजन आती है बाद में कठोरता हो जाती  है | 

  4. आक्रांत संधि पर तीव्र पीड़ा होती है | 

  5. मालिश करने से लाभ होता है | 


मोटे शरीर वाले व्यक्तियों के घुटने की संधि में यह रोग अधिक होता है | इसके अतिरिक्त अनेक व्यक्तियों में उनके कार्य के अनुसार ही कुछ संधियों को अत्यधिक कार्य करना पड़ता है,जिसके कारण प्रौढ़ अवस्था में वे ही अधिक क्षीण हो जाती हैं | 


उदाहरण के लिए घड़ीसाज,हाथों से कपडे बुनने वाला ,धोबी,भारी वाहन चालक आदि | इन व्यक्तियों के विभिन्न कार्यों के अनुसार विशेष संधियों को ही कार्य करना होता है ,जिससे इस रोग के होने पर वे ही संधियां मुख्य रूप से प्रभावित होती हैं | 


पीठ तथा कमर में प्रायः दर्द होता रहता है ,पर यह रोग मेरुदंड को अधिक प्रभावित करता है | गर्दन से नीचे की संधि में यह रोग हो सकता है | 


संधिवात रोग में विशेष बात यह है कि इस रोग में सम्पूर्ण संधियों में दर्द नहीं होता | सूजन बिल्कुल नहीं होती या कम होती है | यह रोग क्रमश:धीरे-धीरे बढ़ता है | संधियों में खरता (stiffness) आने के फलस्वरूप एक बार यह रोग हो जाने के बाद थोड़ा-बहुत बना ही रहता है यदि किसी तरह की चोट से यह उत्पन्न हुआ है तो रोग के ठीक होने की संभावना रहती है | यदि रोग का निवारण हो भी जाए,तब भी आक्रांत संधि की कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है | 



                                             चिकित्सा सिद्धांत 


यह हड्डियों के जोड़ में होने वाला रोग है | इसलिए जिस संधि में यह रोग होता है,उस संधि के द्वारा की जाने वाली चेष्टा कम कर देना चाहिए | यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की कार्य बिलकुल बंद नहीं करना चाहिए | कार्य बिलकुल बंद कर देने से संधि में जकड़न हो जाती है | 



                                         औषधि चिकित्सा 

जब व्यक्ति कब्ज की बीमारी बहुत पुरानी हो जाती है तो जोड़ों का दर्द शुरू हो जाता है इसलिए कोई भी दवाई उपयोग करने के पहले कब्ज को ठीक करना आवश्यक है | 


  • सूतशेखर रस (सादा),योगराज गुग्गुलु,वातांतक टेबलेट एवं विमटोन टेबलेट इन चारों औषधियों की दो-दो टेबलेट मिलाकर एक मात्रा बनायें तथा ऐसी एक-एक मात्रा दिन में दो  बार सुबह-शाम दूध से सेवन करें | 

  • लिवो सीरप दो चम्मच,बलारिष्ट तीन चम्मच में  कुनकुना जल पांच चम्मच मिलाकर एक मात्रा मिलाएं तथा ऐसी एक-एक मात्रा दिन तथा रात्रि भोजन के बाद सेवन करें | 

  • हाजमा पाचक  चूर्ण दो चम्मच की मात्रा में रात्रि को सोते समय एक दिन के अंतराल से सेवन करें | 

  • पेनिकल आयल से प्रतिदिन दो बार हल्के हाथ से शरीर के सभी जोड़ों की मालिश करें | 

  • महायोगराज गुग्गुलु एवं वात गुंजा रस की एक-एक गोली  महारस्नादि क्वाथ के साथ बहुत दिनों तक लेने से यह रोग निर्मूल हो जाता है | 

  • गठिया में हड्डी टेडी पड़ने पर नाग भस्म एक रत्ती,गोखरू चूर्ण एक माशा  और तीन माशा रत्ती में मिलाकर दशमूल क्वाथ के साथ सेवन करें | 

  • एक पाव दूध में एक लहसुन की कलि उबालें,जब दूध आधा पाव बचे उसका सेवन सुबह खाली पेट करें | 11 दिन लगातार एक-एक कलि बढाबें एवं बारहवें दिन एक-एक कली कम करे | लगातार 22 दिन प्रयोग करें | जैसे-जैसे लहसुन कि कली की संख्या बढ़ती जाती है आवश्यकतानुसार दूध की मात्रा बढ़ाते जावें एवं 11 कलियों के दिन आधा किलो दूध उपयोग करें |

  • महावात विध्वंशक रस दो रत्ती अदरक के रस के साथ लें | 

  • जब संधिवात की दवाइयां लेने पर बीमारी ठीक न हो तो रक्त शुद्ध करने की  दवाई लेना चाहिए| रसमाणिक एक रत्ती उसमे आधा चम्मच शहद ,एक चम्मच शुद्ध घी ( शहद और घी विषम मात्रा में प्रयोग करें ) मिलाकर सेवन करें | 

नोट - एक रत्ती = 121.50 मिग्रा , 6 रत्ती=एक आना , 4.5माशा = एक चम्मच 

  विशेष

  •  रोगी को कब्ज न होने दें | 

  • हल्का,जल्दी पचने वाला आहार,गेंहू की चपाती,मूंग,अरहर की दाल,खिचड़ी,पुराने चावल का भात ,फलों का रस आदि  का सेवन कराएं | 

  • खटाई ,फ्रिज में रखे पदार्थ,ठंडी हवा,ठन्डे जल से स्नान तथा आलू,फूल गोभी,चना,मटर,सेम आदि वातकारक पदार्थों का सेवन न करें |

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