परिचय: आयुर्वेद का इतिहास 5,000 वर्षों पुराना है। आज जब दुनिया टेक्नोलॉजी और आधुनिक चिकित्सा में तरक्की कर रही है, लोग फिर से प्राकृतिक, समग्र और टिकाऊ स्वास्थ्य प्रणाली की ओर लौट रहे हैं। आयुर्वेद अब केवल भारत तक सीमित नहीं रहा—यह एक वैश्विक आंदोलन बन रहा है।
ग्रीष्म ऋतू में जो भीषण गर्म हवाओं के झोंके चलते हैं उन्हें हम बोलचाल की भाषा में “लू “ कहते हैं | ग्रीष्म ऋतू के प्रारम्भ में दिनभर धूल भारिटेज़ हवाएं चलने लगती हैं ये गर्म हवाएं अधिक तीव्र होने के कारण धरती की स्निग्धता का शोषण कर लेती हैं जिसके कारन मानव, जीव-जंतु तथा पेड़ पौधों में जलीयांश मैं कमी आ जाती है जिसके फलस्वरुप समस्त दुनिया को परेशानी का सामना करना पडता है |
मानव शरीर पंच महाभूतों से निर्मित हैं ये है - आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी | पांच तत्वों एवं त्रिदोष( वात,पित्त,कफ) के सम अवस्था में रहने से ही शरीर स्वस्थ रहता है |तीनों दोषों में वात ( वायु ) ही बलबान है| पित्त और कफ पंगु है इनको वायु जहा ले जाता है वे बादल के समान चले जाते हैं | वायु के पांच भेद माने जाते हैं (1 ) प्राण (2 ) अपान (3 ) समान (4 ) उदान (5 ) व्यान | यदि ये पांचो वायु अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहें और अपने - अपने स्थान में विद्यमान रहें तो अपने -अपने कार्यों को संपन्न करते हैं और इन पाँचों के द्वारा के रोग रहित शरीर का धारण होता है |
हिमालय प्रदेश में अगम्य स्थानों पर कठिनता से प्राप्त होने वाली ऐसी अनेक औषधियां हैं जिनके प्रभाव भी दिव्या होते हैं | असंख्य दिव्य औषधियों में से कुछ इस प्रकार है - ऐन्द्री( इन्द्रायण) - यह औषधि 2 प्रकार की होती है सफ़ेद पुष्प वाली और लाल पुष्प वाली | कही-कही पीले पुष्प वाली भी पायी जाती है | (१) लाल इन्द्रायण - इसे विशाला,महाफला,चित्रफला,त्रयूसी,रम्यादिहिवल्ली,महेंद्र वारुणी - इन नामों से सम्बोधित किया गया है | (२) श्वेतपुष्पी - अर्थात बड़ी इंद्रायणी को मृगाक्षी,नागदंति,वारुणी,गरजचिभटा -इन नामों से जाना जाता है |
उच्च रक्तचाप का आयुर्वेदिक नाम शिरागत वात है| रक्त वाहनियों तथा धमनियों पर रक्त का अधिक दवाव पड़ना और उनका कठोर हो जाना शिरागत वात है | सामान्यतः रक्तचाप 120/80 मि.मी.पारा होता है इसमें 10मि.मी. पारे की घटत बढ़त भी सामान्य ही समझना चाहिए| यह 2 प्रकार का होता है - (1) उच्च रक्त चाप ( HIGH B.P.) (2) न्यून रक्त चाप ( LOW B.P.)
मानव शरीर अनंत रहस्यों से भरा हुआ है | शरीर की अपनी एक मुद्रामयी भाषा है,जिसे करने से शारीरिक स्वास्थ्य-लाभ में सहयोग प्राप्त होता है | यह शरीर पञ्चतत्वों के योग से बना है | पांच तत्व ये हैं - (1) पृथ्वी (2) जल (3) अग्नि (4) वायु (5) आकाश | शरीर में जब भी इन तत्वों का असंतुलन होता है,रोग पैदा हो जाते हैं | यदि हम इनका संतुलन करना सीख जाएँ तो बीमार हो ही नहीं सकते एवं यदि हो भी जाएँ तो इन तत्वों को संतुलित कर के आरोग्यता वापस ला सकते हैं |
मानव शरीर में पेट जैसे मह्त्बपूर्ण अंग जिसका सम्बन्ध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में अधिकांश रोगों से होता है ,की देखरेख अतिआवश्यक है | अगर पेट रोग से आप पीड़ित हैं तो न तो आप खाने का आनन्द ले सकते हैं और न ही सही जीवन जीने का | क्योकि सम्पूर्ण धातुओं का निर्माण एवं पोषण -पाचन अग्नि पर निर्भर होता है और अगर शरीर में खानपान के दुष्प्रभाव स्वरुप अग्नियां प्रभावित होती हैं तो सामान्य से गंभीर पेट के विकार हो सकते हैं |
सौंफ घर -घर में मुखशुद्धि के रूप में प्रचलित सौंफ का उपयोग प्राचीनकाल से ही औषधि के रूप में भी होता रहा है | इसके अलावा सौंफ का उपयोग मसालों और पान में डाले जाने वाले मसाले के रूप में भी होता है | गांव में आज भी लोग ठंडाई शरबत बनाकर इसका सेवन करते हैं| पेट के रोगों के लिए तो ये रामबाण औषधि है | सूखी सौंफ श्लेष्मिक कला और पाचन तंत्र पर प्रभावकारी असर करता है |
हमारे शरीर में स्थित मुट्ठी के आकार का ह्रदय एक मिनट में 70 बार धड़कता है और एक घंटे में ३०० लीटर रक्त शरीर के अंग प्रत्यंग में प्रसारित करता है | ह्रदय का मुख्य कार्य रक्त को शुद्ध कर के शरीर के प्रत्येक हिस्से में रक्त की आपूर्ति करना है | जब रक्तप्रवाह में रुकावट आती है तो ह्रदय को अपना कार्य करने में कठिनाई होती है। रक्तप्रवाह में अवरोध आने के कारण कुछ मांसपेशियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं,जिससे तीव्र वेदना होती है और अन्य लक्षण उत्पन्न होते हैं|स्वयं ह्रदय को दो छोटी-छोटी धमनियों से थोड़ा रक्त मिलता है |
मानव आदिकाल से ही सुंदरता का पुजारी रहा है | उसे अपनी सुंदरता को बनाये रहने से ही मानसिक सुंदरता अर्थात उच्च कोटि के भाव उत्कृष्टता के साथ बने रहते हैं | अतः अपने शरीर के मुखकमल की सुंदरता निमित्य प्रत्येक व्यक्ति को सदाचार पूर्वक अपनी सुंदरता को बरकरार रखना चाहिए , क्योकि मुखकमल द्वारा ही व्यक्ति की मानसिक अवस्था एवं चरित्र का ज्ञान किया जा सकता है| 14-15 वर्ष की आयु के बाद मुख पर सेमल के कांटे के समान कफ,वायु एवं रक्त से युवाओ में होने वाली छोटी-छोटी फुंसियां निकलने लगती हैं जिसे मुंहासे कहते हैं |
बवासीर एक बहुत कष्टदायक रोग है और यदि जल्दी ही इसे दूर न किया जा सके तो तो यह बढ़ता जाता है और रोगी का उठना बैठना भी मुश्किल हो जाता है | इस रोग में गुदा के अंकुर फूल कर मटर या अंगूर के बराबर हो जाते हैं | दरअसल ये अंकुर असामन्य रूप से फूली हुई रक्त शिराएं होती हैं जो गुदा या मलाशय के जोड़ पर या गुदा और गुदाद्वार की त्वचा के जोड़ पर स्थित होती है | इनकी स्थिति की आधार पर ही इन्हे आंतरिक या बाह्य बवासीर कहते हैं |
हमारे गुर्दे लाखों छलनियो तथा लगभग 140 मील नलिकाओं से बने होते हैं | गुर्दे की इस इकाई को नेफ्रॉन कहते हैं | एक गुर्दे में लगभग 10 लाख ऐसी ऐसी इकाइयां होती हैं | नलिकाएं उस छाने हुए द्रव अच्छी अच्छी चीज़ो( सोडियम,पोटेशियम, कैल्शियम ) इत्यादि को दोबारा सोख लगभग 1.5 लीटर मूत्र के रूप में बाहर निकाल देती हैं | हमारे गुर्दे लगभग 1500 लीटर खून को साफ़ कर के लगभग 9.5 लीटर मूत्र में बदल देते हैं | लगभग 1200 मिलीलीटर रक्त प्रत्येक १ मिनट में दोनों गुर्दों से प्रवाहित होता है तथा यह 1 मिलीलीटर प्रत्येक मिनिट के हिसाब से मूत्र में बदल जाता है |
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